नई दिल्ली: आज, आजादी के महानायक बिरसा मुंडा की जयंती है, जो अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते हुए अपने 24 साल की उम्र में शहादत देने का साहस दिखाए। बिरसा मुंडा के जीवन की यह महागाथा आज भी हमें स्वतंत्रता और आदिवासी अधिकारों के लिए क्रांति की प्रेरणा प्रदान करती है.

बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को हुआ था, तत्कालीन बंगाल प्रेसीडेंसी के रांची जिले के उलिहातू गांव में (जो अब झारखंड के खूंटी जिले में है)। उनके प्रेरणास्रोत शिक्षक जयपाल नाग के मार्गदर्शन में उन्होंने सालगा में शिक्षा प्राप्त की, लेकिन बाद में उन्होंने इसे छोड़ दिया, क्योंकि वह नहीं चाहते थे कि आदिवासियों को ईसाई धर्म में परिवर्तित किया जाए.
बिरसा ने बिरसैत नामक एक धर्म की स्थापना की, जिसमें मुंडा समुदाय के सदस्यों ने शामिल होना शुरू किया, और यह धर्म ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ एक बड़ी चुनौती बन गया।

बिरसा मुंडा ने उलगुलान नामक आंदोलन शुरू किया, जिसमें उन्होंने आदिवासियों को ब्रिटिश सिपाहियों के खिलाफ उत्तरदाता बनने के लिए प्रेरित किया। उनकी तांगी नदी के किनारे पर हुई एक लड़ाई में, जिसमें वह नेतृत्व कर रहे थे, आदिवासी समाज ने ब्रिटिश सिपाहियों को करारी हार दी।

1900 में ब्रिटिश सरकार ने बिरसा मुंडा को पकड़ने में सफल रहा और उन्हें जेल में बंद कर लिया। वहां उनकी स्वास्थ्य बिगड़ी और उन्होंने खून की उल्टियां शुरू की। उनका आत्मत्याग 9 जून 1900 को हुआ, लेकिन उनकी प्रेरणा और साहस ने एक नए युग की शुरुआत की जो आज भी हमारे हृदयों में बसी है।
बिरसा मुंडा की मौत के बाद, उनका आंदोलन रुका नहीं, बल्कि उनकी शौर्यगाथा ने और भी लोगों को जागरूक किया और आज उन्हें एक आदिवासी हीरो के रूप में याद किया जाता है।
बिरसा मुंडा की महागाथा ने हमें यह शिक्षा दी है कि सत्य और न्याय के लिए संघर्ष करना हमारी जिम्मेदारी है, और आदिवासी समुदाय का समर्थन करना हमारे सभी का कर्तव्य है। आज, हम बिरसा मुंडा की जयंती के इस अवसर पर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं और उनकी महागाथा से प्रेरित होकर समृद्धि और न्याय की दिशा में अग्रसर होने का संकल्प लेते हैं।