बिहार सरकार द्वारा जारी 75% आरक्षण के बारे में विवाद और उसके महत्वपूर्ण मायने हैं। बिहार विधानसभा में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस मुद्दे को उठाया और एक बिल के माध्यम से राज्य में 75% आरक्षण लागू करने का प्रस्ताव पेश किया था। इस बिल को राज्यपाल की मंजूरी मिलने के बाद, बिहार में शिक्षा संस्थानों और सरकारी नौकरियों में 65% और केंद्र द्वारा पहले से 10% आरक्षण के साथ कुल 75% आरक्षण लागू किया गया है।
राज्यपाल के हस्ताक्षर के बाद यह बिल गजट में शामिल होगा और इससे बिहार में नौकरी और शिक्षा संस्थानों में आरक्षण का दायरा बढ़ा जाएगा। इससे पहले बिहार में आरक्षण की दर 65% थी, लेकिन इस नए बिल के तहत यह दर 75% हो गई है। जातिजनगणना के आंकड़ों के अनुसार, बिहार में पिछड़ा वर्ग की जनसंख्या 27.12%, अत्यंत पिछड़ा वर्ग की जनसंख्या 36.01%, अनुसूचित जाति की जनसंख्या 19.65%, और अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या 1.68% है।
इस आरक्षण के बढ़ते हुए प्रतिशत से साथ ही, बिहार सरकार ने जातिजनगणना की शुरुआत की है ताकि विभिन्न जातियों और समूहों की सटीक आंकड़े प्राप्त किए जा सकें। इसका मकसद है न्यायसंगत आरक्षण की नीतियों को अपडेट करना और समाज में सामाजिक और आर्थिक असमानता को कम करना।
इसके अलावा, इस आरक्षण के फैसले का राजनीतिक परिप्रेक्ष्य भी महत्वपूर्ण है। इसे नीतीश कुमार के ‘आरक्षण कार्ड’ के रूप में देखा जा रहा है जो बिहार के पिछड़े समाज में उनकी स्थिति को मजबूत करने के लिए एक सामर्थ्यपूर्ण कदम है। यह भी उठाए जा रहे सवालों को दिखाता है कि आरक्षण पॉलिटिक्स देशभर में फिर से चर्चा का केंद्र बन रहा है और इससे आने वाले चुनावों में इसका बड़ा प्रभाव हो सकता है।