ओडिशा HC का हालिया फैसला, जिसमें 6 साल की बच्ची से बलात्कार और हत्या के दोषी शेख आसिफ अली की फांसी की सजा को उम्रकैद में बदल दिया गया, ने कई सवाल उठाए हैं। यह मामला अपने आप में बेहद संवेदनशील और विवादास्पद है, क्योंकि एक निर्दोष बच्ची की जान ली गई थी।
मामले का विवरण
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2014 में, शेख आसिफ अली को छह साल की बच्ची के बलात्कार और हत्या के आरोप में दोषी ठहराया गया था। ट्रायल कोर्ट ने इसे ‘रेयरेस्ट ऑफ द रेयर’ मामला मानते हुए अली को फांसी की सजा सुनाई थी। अली को आईपीसी की धारा 302 (हत्या) और 376 (बलात्कार) के साथ-साथ POCSO एक्ट की धारा 6 के तहत दोषी पाया गया था।
हाई कोर्ट का निर्णय
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हालांकि, ओडिशा हाई कोर्ट की जस्टिस एसके साहू और जस्टिस आरके पटनायक की डिवीजन बेंच ने इस मामले में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया। हाई कोर्ट ने अली की सजा को उम्रकैद में बदल दिया, यह मानते हुए कि यह मामला ‘रेयरेस्ट ऑफ द रेयर’ नहीं था। कोर्ट ने कई आधारों पर इस फैसले को सही ठहराया, जिनमें से कुछ विवादास्पद थे।
धार्मिक प्रार्थना का आधार
हाई कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि दोषी दिन में कई बार नमाज पढ़ता है और उसने खुदा के सामने आत्मसमर्पण कर दिया है। कोर्ट ने यह भी कहा कि अली सजा को स्वीकार करने के लिए तैयार है और उसका जेल में व्यवहार सामान्य रहा है। कोर्ट ने यह भी उल्लेख किया कि अली ने जेल के अंदर कोई अपराध नहीं किया और उसने जेल प्रशासन के सभी अनुशासन का पालन किया।
पारिवारिक और सामाजिक परिस्थितियाँ
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कोर्ट ने दोषी की पारिवारिक परिस्थितियों का भी हवाला दिया। अली एक पारिवारिक आदमी है और उसकी बुजुर्ग मां और दो अविवाहित बहनें हैं। घर में कमाने वाला वही था और परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। कोर्ट ने यह भी उल्लेख किया कि अली स्कूल में अच्छा छात्र था और उसने मैट्रिकुलेशन पास किया था, लेकिन आर्थिक स्थिति के कारण आगे पढ़ाई नहीं कर सका।
फैसले पर विवाद
यह फैसला कई लोगों के लिए विवादास्पद बन गया है। कई लोग यह सवाल उठा रहे हैं कि क्या एक अपराधी की सजा इस आधार पर कम की जा सकती है कि वह धार्मिक प्रार्थना करता है। यह तर्क दिया जा रहा है कि धार्मिक प्रार्थना या किसी व्यक्ति का धार्मिक आस्था उसकी सजा को कम करने का आधार नहीं हो सकता, खासकर तब जब उसने ऐसा घृणित अपराध किया हो।
न्याय की परिभाषा
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मृत्युदंड केवल ‘रेयरेस्ट ऑफ द रेयर’ मामलों में ही दिया जा सकता है। लेकिन, सवाल यह उठता है कि क्या एक छह साल की बच्ची के बलात्कार और हत्या का मामला ‘रेयरेस्ट ऑफ द रेयर’ नहीं है? क्या केवल धार्मिक आस्था और अच्छे व्यवहार के आधार पर एक दोषी को सजा में रियायत दी जा सकती है? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह न्याय की परिभाषा को चुनौती देता है।
समाज पर प्रभाव
इस तरह के फैसलों का समाज पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है। यह संदेश जाता है कि किसी भी अपराध के बाद केवल धार्मिक प्रार्थना और अच्छे व्यवहार से सजा कम की जा सकती है। यह न्याय के सिद्धांतों और अपराधियों के पुनर्वास की परिभाषा को प्रभावित कर सकता है।
समाज की अपेक्षाएँ और न्याय
समाज न्याय की अपेक्षा करता है, खासकर ऐसे मामलों में जहां एक मासूम बच्ची की जान गई हो। न्याय प्रणाली का उद्देश्य केवल अपराधियों को सजा देना नहीं है, बल्कि पीड़ितों और उनके परिवारों को न्याय दिलाना भी है। इस मामले में, पीड़िता और उसके परिवार को न्याय मिलना उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि दोषी का पुनर्वास।
ओडिशा हाई कोर्ट का यह फैसला कई सवालों को जन्म देता है और न्याय की परिभाषा पर गंभीर चिंतन की आवश्यकता को दर्शाता है। न्याय केवल कानून के प्रावधानों का पालन नहीं है, बल्कि यह समाज की नैतिकता और पीड़ितों की अपेक्षाओं का भी सम्मान करना है। ऐसे मामलों में, न्याय प्रणाली को संतुलन बनाए रखना होगा, ताकि न्याय की परिभाषा सुदृढ़ और समर्पित बनी रहे।